सामाजिक अध्ययन की शिक्षण विधियाँ -

सामाजिक अध्ययन की शिक्षण विधियाँ -

*    सामाजिक अध्ययन मनुष्य का तथा उसके अन्य व्यक्तियों व अपने वातावरण के साथ सम्बन्धों का अध्ययन करता है। सामाजिक अध्ययन का तात्पर्य समाज का, समाज के लिए , और समाज द्वारा अध्ययन है।
*    यह सामाजिक ढाँचे में मानव का अध्ययन करता है तथा यह देखता है कि भूत, वर्तमान तथा भविष्य में अपने सामाजिक और भौतिक वातावरण से उसके परस्पर सम्बन्ध कैसे रहे हैं या रहने की सम्भावना है।
*    सामाजिक अध्ययन का सामान्य अर्थ मनुष्य और उसके वातावरण तथा दोनों के मध्य पाई जाने वाली अंतनिर्भरता के अध्ययन से है।
*    वास्तव में व्यक्ति के चारंों ओर का सामाजिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक, आर्थिक वातावरण मनुष्य पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रभाव डालता है अत: सामाजिक अध्ययन मे इन सभी प्रभावों का अध्ययन किया जाता है।
*    माइकेलिस के अनुसार - सामाजिक अध्ययन मनुष्य तथा उसके वातावरण से सम्बन्धित क्रियाओं का अध्ययन है।

*    ई०बी० वेस्ले के अनुसार - सामाजिक अध्ययन उस विषय सामग्री की ओर संकेत करता है जिसके आधारभूत तत्व सामाजिक है।

*    कार्टर०वी०गुड के अनुसार - सामाजिक अध्ययन मनुष्य एवं उसके परिवेश का अध्ययन विषय है।

तथ्य -
*    सामाजिक अध्ययन का प्रारंभ 1892 में यू०एस०ए० में हुआ।
    प्रारंभ में इसमें केवल इतिहास, नागरिक शास्त्र व अर्थशास्त्र विषय ही थे।
*    1911 में ‘कमेटी ऑफ टेन’ द्वारा एवं 1916 में ‘कमेटी ऑन सोशल स्टडीज’ द्वारा इसे एक स्वतंत्र विषय के रूप में मान्यता दी गई।
*    भारत में सर्वप्रथम विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने उच्च कक्षाओं हेतु इस विषय की सिफारिश 1948 में की।
*    1952 में मुदालियर आयोग (माध्यमिक शिक्षा आयोग) ने सर्वप्रथम विद्यालयों के लिए इस विषय की सिफारिश की।
*    1955 में इसे तीसरी कक्षा से लागू कर दिया गया।
*    कक्षा - 3 में - पर्यावरण अध्ययन
*    कक्षा - 4 में - पर्यावरण अध्ययन - की अलग-अलग पुस्तकें व कक्षा 5 में - सामाजिक अध्ययन + सामान्य विज्ञान।
*    कक्षा 6,7,8 में - सामाजिक अध्ययन ।
*    कक्षा 9,10 में - सामाजिक विज्ञान के नाम से अध्ययन करवाया जाता है।
*    सामाजिक अध्ययन के अंतर्गत मानविकी विषयों जैसे इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र आदि के समन्वित स्वरूप को शामिल किया गया है।
*    सामाजिक अध्ययन बहुत से विषयों का मिश्रण नहीं अपितु एक स्वतंत्र और नवीन विषय है जिसमें मानविकी विषयों के समन्वित स्वरूप का अध्ययन किया जाता है।
सामाजिक अध्ययन का क्षेत्र -        

सामाजिक अध्ययन

सामाजिक अध्ययन की प्रकति-

1.    यह मानवीय सम्बन्धों का अध्ययन करता है।
2.    यह मानव समूहों का अध्ययन करता है।
3.    यह व्यक्तिगत भिन्नता पर आधारित विषय है।
4.    यह ज्ञान को एक ईकाई मानकर अध्ययन करता है।
5.    इसमें क्रमबद्ध और व्यवस्थित ज्ञान प्रदान किया जाता है।
6.    सामाजिक अध्ययन का ज्ञान पूर्णत: वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक है।
7.    यह कला और विज्ञान दोनों है।
8.    यह अंर्तराष्ट्रीय सम्बन्धों का अध्ययन करता है।
9.    यह सामाजिक पर्यावरण का अध्ययन करता है।
10.    यह तात्कालिक घटनाओं का अध्ययन करता है।
11.    यह सामाजिक गुणों का अध्ययन करता है।

प्रायोजना विधि -
जॉन डी०वी० के शिष्य डब्ल्यू०एच० किलपैट्रिक ने प्रयोजनवाद के आधार पर 1918 में इस विधि को प्रतिपादित किया।
    नोट- दुनिया की पहली प्रयोजना अर्थशास्त्र के क्षेत्र में बनाई गई थी।
डब्ल्यू० एच० किलपैट्रिक के अनुसार - प्रयोजना वह सह्रदय उद्देश्यपूर्ण कार्य है जिसे पूर्ण मनोयोग के साथ सामाजिक वातावरण में सम्पन्न किया जाता है।
स्टीवेन्सन के अनुसार - प्रायोजना एक समस्यामूलक कार्य है जो स्वाभाविक परिस्थितियों में पूर्ण किया जाता है।
बेलार्ड के अनुसार - प्रायोजना वास्तविक जीवन का एक छोटा सा अंश है जिसे विद्यालय से संपादित किया जाता है।
प्रायोजना के प्रकार -
1.    कक्षा के छात्रों की दृष्टि से -
    * व्यक्तिगत प्रायोजनाएं - जो प्रत्येक छात्र अपनी-अपनी प्रायोजना बनाता है।
    उदा० - किसी व्यवसायिक डिग्री में।
    * सामूहिक प्रायोजनाएं - जो कुछ छात्रों द्वारा मिल कर सम्पन्न की जाती है।
2.    समय की दृष्टि से -
    
    * लघु प्रायोजनाएं - जो एक दो दिन में सम्पन्न कर ली जाती है।
    * वृहद् प्रायोजनाएं - जिनमें सामान्यत: 5-7 दिन का समय लगता है।

3.    विषय की दृष्टि से - 


1.     समस्यात्मक प्रायोजनाएं - जैसे -
        वातावरणीय समस्याएं - वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण।
        सामाजिक समस्याएं - गरीबी, बेरोजगारी।
        ग्राम सभा में मामले किसी प्रकार उठाये जाते है।
        राज्यों की शासन व्यवस्था केंद्र से किस प्रकार प्रभावित है आदि।
2.     रचनात्मक प्रायोजनाएं - जैसेे -
        लेख, कहानी आदि लिखने और पढऩे का ढंग सिखाना।
3.    उत्पादनात्मक प्रायोजनाएं - जैसे -
        चार्ट, मॉडल, मानचित्र, खिलौने, चॉक, मोमबत्ती आदि का निर्माण।
4.    अभ्यासात्मक प्रायोजनाएं - जैसे -
        वोट डालने की प्रक्रिया करवाना, विधानसभा का मंचन करवाना, कठपुतली का शो आयोजित करवाना बैंक की गतिविधियों का संचालन कराना।

प्रायोजना विधि के गुण-
1.    यह व्यवहारिक होती है।
2.    यह करके सीखने पर आधारित होती है।
3.    यह छात्रों का शारीरिक, मानसिक व सामाजिक विकास करती है।
4.    यह छात्र केन्द्रित विधि है।
5.    यह नेतृत्व के गुण विकसित करती है।
6    यह प्रजातांत्रिक गुणों का विकास करती है।
7.    यह चिंतन, तर्क, मनन का विकास करती है।
8.    यह व्यक्तिगत भेदों के अनुसार शिक्षण प्रदान करती है।
9.    यह ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण देती है।
10.    यह ज्ञान को वास्तविक जीवन से जोड़ती है।
11.    यह श्रम हेतु प्रेरित करती है।
12.    यह वैज्ञानिक व मनोवैज्ञानिक विधि है।

दोष -
1.    खर्चीली विधि है।
2.    पाठ्यक्रम समय पर पूर्ण नहीं होता।
3.    प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव है।
4.    सभी विषयों के शिक्षण में उपयोगी नहीं है।
5.    उपकरणों व संसाधनों का अभाव है।
6.    विषय की पुनरावृत्ति हेतु कोई व्यवस्था नहीं है।
7    प्रोजेक्ट विधि के आधार पर उचित पाठ्य-पुस्तकें नहीं मिलती।
8    अध्यापक को विद्यार्थियों का मनोवैज्ञानिक रूप से अध्ययन करना पड़ता है, उनकी योग्याताओं, आवश्यकताओं, एवं रूचियों इत्यादि से परिचित होना पड़ता है।
9    योजना विधि से साहित्य, धर्म और दर्शन विषय पढ़ाये ही नहींं जा सकते।

प्रायोजना विधि के सोपान -

1.    परिस्थिति उत्पन्न करना- शिक्षक बालकों की योग्यताओं क्षमताओं के आधार पर ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करे जिनके द्वारा वे किसी न किसी समस्या या प्रोजेक्ट को चुन सकें।
2.    प्रायोजन कार्य का चुनाव-बालकों ने जिन-जिन परिस्थितियों का अध्ययन किया है, वे उनसे सम्बन्धित समस्या पर विचार-विर्मश करेंगे और प्रोजेक्ट के रूप में किसी ऐसी समस्या को चुनेेगेंं जिसमें अधिकांश बालकों को रूचि हो7
3.    कार्यक्रम बनाना - योजना निश्चित हो जाने के पश्चात् उसको पूरा करने के के लिए कार्यक्रम तैयार किया जाना चाहिए।
4.    कार्यक्रम क्रियान्वित करना - कार्यक्रम बन जाने के पशचात् प्रत्येक बालक अपना कार्य क्रिया द्वारा सीखना के आधार पर स्वंय करता है। सभी छात्र अपनी योग्यता और सामथ्र्य के अनुसार अपने-अपने उत्तरदायीत्व को निभाते है।
5.    कार्य का मूल्यांकन - प्रोजेक्ट पूरा कर लेने के पशचात् यह अनावशयक हो जाता है कि बालक अपने किए हुए कार्य का स्वयं निरीक्षण तथा मूल्यांकन करें।
6.    कार्य का लेखाजोखा रखना -विद्यार्थियों द्वारा प्रोजेक्ट के चुनाव से लेकर पूरा होने तक सभी क्रिया-क्रिलापों का पूरा ब्यौरा रखा जाता है ।

शिक्षण में अनुदेशन सहायक प्रणाली/ सहायक सामग्री/स्रोत सामग्री

*    वह भौतिक सामग्री जो एक शिक्षक को कक्षा शिक्षण में विषय के स्पष्टीकरण हेतु सहायता करती है, अनुदेशन सहायक सामग्री कहलाती है।
सहायक सामग्री का वर्गीकरण -
इन्द्रियों के आधार पर -
1.    श्रव्य सामग्री - रेडियो, ग्रामोफोन, टेप, रिकार्डर।
2.    दृश्य सामग्री - चित्र, मानचित्र, चार्ट, ब्लैक-बोर्ड, प्रोजेक्टर।
3.    श्रव्य-दृश्य सामग्री - टी०वी०, कम्प्यूटर इत्यादि।

प्रौद्योगिकी/तकनीकी के आधार पर -

1.    सोफ्टवेयर (कोमल शिल्प) - वे कार्यक्रम जिन्हें केवल महसूस अथवा अनुभव किया जा सकता है।
2.    कठोर शिल्प (हार्डवेयर) - वे उपकरण जिन्हें हम देख व छू सकते हेै एवं जिनके माध्यम से ही कोमल शिल्प का संचालन होता है।
प्रक्षेपण के आधार पर -
1.    प्रक्षेपित सामग्री - जैसे - फिल्म स्ट्रिप, फिल्म खण्ड, फिल्म स्लाइड, ओवर हैड प्रोजेक्टर, स्लाइड प्रोजेक्टर इत्यादि।
2.    अप्रक्षेपित सामग्री - ब्लैक बोर्ड, रेखाचित्र, फ्लेनल बोर्ड, मॉडल।
चार्ट के प्रकार -
1.    आनुवांशिक चार्ट - जैसे - राजा-महाराजाओं की वंशावली। (ये नीचे से ऊपर की ओर चलते है।)
2.    धारावाहिक चार्ट - इसमें घटनाओं का क्रम दर्शाया जाता है। (ये नीचे से ऊपर की ओर चलते है।)
3.    वृक्ष आकृति चार्ट - वंश, वृक्ष राज्य विस्तार आदि वृक्ष की आकृति में दर्शाये जाते है।
4.    तालिका चार्ट - जैसे -समय सारणी (विद्यालय, अस्पताल आदि)।
5.    वृत्ताकार चार्ट - जैसे - जनसंख्या का वितरण दर्शाना आदि।
6.    चित्रात्मक चार्ट - इसमें मंदों के साथ चार्ट भी होते है। जैसे - फसलों के चार्ट।
7.    प्रवाह चार्ट - किसी घटना की सह-घटनाओं को दिखाना। जैसे - किसी नेटवर्किंग, कम्पनी का फ्लोचार्ट।
8.    संगठन सूचना चार्ट - किसी निगम अथवा शासक ईकाई का ब्यौरा।
ग्राफ के प्रकार -
1.    सरल रेखीय ग्राफ - किसी मूल्य की घटती बढ़ती दर दर्शाने हेतु।
    जैसे - गरीबी रेखा, सोने का मूल्य।
2.    दण्ड ग्राफ/स्तम्भ ग्राफ - तुलनात्मक/मात्रात्मक मूल्य दर्शाना।
3.    वृत्त ग्राफ - वस्तु के अंशों की प्रतिशतता दर्शाने हेतु। (100 प्रतिशत पर)
4.    चित्रात्मक ग्राफ - इसमें स्तम्भों के साथ चित्र भी दर्शाए जाते है।

श्यामपट्ट के प्रकार -
1.    स्थायी श्याम पट्ट
2.     अस्थायी श्याम पट्ट - जिन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जा सकता है।
3.    लकड़ी के श्याम पट्ट
4.    कांच या प्लाईवुड के श्याम पट्ट

मानचित्र के प्रकार -
1.    प्राकृतिक मानचित्र - मिट्टी, जल, वर्षा इत्यादि के।
2.    आर्थिक मानचित्र - व्यापार से संबंधित।
3.    राजनैतिक मानचित्र - राष्ट्र, राज्य।
4.    सामाजिक मानचित्र - भाषा, प्रजाति के आधार पर।
5.    ऐतिहासिक मानचित्र - किसी साम्राज्य की भौगोलिक सीमा से संबंधित।

अन्य सहायक सामग्रीयां -
1.    रेआलियां - किसी समाज या संस्कृति विशेष द्वारा बनाई गई वास्तविक वस्तुएं।
2.    डायोरमा - किसी वस्तु की 3 डी बनाकर प्रस्तुत करना।
3.    फ्लेनल बोर्ड - लकड़ी के बोर्ड पर एक कपड़ा लगाकर बनाया जाता है।
4.    सूचना पट्ट
5.    ग्लोब -प्रकार - राजनैतिक ग्लोब, भौतिक-राजनैतिक ग्लोब, स्लेट पृष्ठीय ग्लोब।
    स्लेट जैसे कागज की बना जिस पर अस्थाई लकीरें खींची जा सकती है।
6    फ्लेनल बोर्ड - इस बोर्ड की रचना बहुत साधारण होती है इनको बनाने में  के हार्ड बोर्ड या प्लाईवुड के बोर्ड या फ्रेम पर फ्लेनल का कपड़ा लगा दिया जाता है। इसके द्वारा कागज या ब्लाटिंग काटकर बनाए गए विभिन्न आकार के पदार्थों के स्वरूप को स्पष्ट किया जा सकता है। इन कागजों पर आवश्यकतानुसार कठिन उपकरणों के चित्रों, चित्र, ग्राफ, रंगीन डायग्राम बने रहते हैं, इनके पीछे सैंड पेपर (रेगमाल) की पटिट्या बीच में चिपका दी जाती हैं। जो फ्लेनल के कपड़े की पकड़ लेता है।
7    बुलेटिन बोर्ड - बुलेटिन बोर्ड भी प्रदर्शन-सामग्री को प्रदर्शित करने का आधार-उपकरण है तथा प्लाइवुड, मोसेनाइट या मजबूत गत्ते का बना होता है। सामान्यता इस पर प्रदर्शन-सामग्री को लगाने लिए ‘ड्राइंग पिन्स’ का प्रयोग किया जाता है। कभी-2 इस पर कपड़ा भी चढ़ा दिया जाता है, जिससे साधारण आलपिनों से ही प्रदर्शित की जाने वाली सामग्री को उस पर लगाया जा सकता है।
8    फ्लैश कार्ड - ये चित्रात्मक कार्ड किसी मोटे कागज पर प्राय: इंच के आकार के होते हैं। वैसे 6 इंच या 15 सेमी आकार ठीक समझा जाता है। इन कार्डों पर एक ओर शब्द या फ्रेज होता है और दूसरी ओर उसका अर्थ/अनुदशों या निर्दशों के आधार पर विद्यार्थी उत्तर लिखता है और बाद में पीछे लिखे उत्तर से मिलता है।
9    पोस्टर/विज्ञापन- पोस्टर विज्ञापन के रूप में अधिगम-रूप में अधिगम-सामग्री के सशक्त साधन हैं। तथा शैक्षिक प्रदर्शनी में भी पोस्टर की महत्वपूर्ण भूमिका होतीं है।
10    कठपुतली- राजस्थान में इसका प्रशिक्षण भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर के तत्वाधान में संचालित गोविन्द शैक्षिक कठपुतली प्रशिक्षण केन्द्र द्वारा लिखा दिया जाता है।
11    शिरोपरि प्रक्षेपी या ओवरहैड प्रोजेक्टर- यह प्रक्षेपी जादुई लालटेन और एपिडॉयस्कोप को ही एक उन्नत किस्म है। यह प्रकाशमान कमरें में भी काम कर सकता है और कमरे में अधेंरा करने की आवश्यकता नहीं ।
12    एपिडॉयस्कोप या चित्र-विस्तारक-एपिडॉयस्कोप द्वारा अपारदर्शी पदार्थों के छोटे रूप (छपी हुई आकृतिंयों, चित्रों, रेखाचित्रों आदि) को पर्दे पर बड़े आकार में प्रक्षेपित किया जाता है।
*    जब इसका प्रयोग अपारदर्शी वस्तुओं को प्रक्षेपित करनें में करें तो इसे ‘एपिस्कोप’ कहते हैं। जब स्लाइड को प्रक्षेपित किया जाता है तो इसे ‘डायस्कोप’ कहते हैं। इस प्रकार समग्र रूप में इसका नाम ‘एपिडॉयस्कोप’ जाना जाता है।
ृ13    फिल्म स्ट्रिप्स-फिल्म स्ट्रिप्स शिक्षण की सर्वोत्तम एवं सर्वोधिक प्रभावशाली सहायक सामग्री है। फिल्म की चौड़ाई 35 मि.मि. होती है तथा इसकी लम्बाई 1 मी. से 1.50 मी. तक की हो सकती है। किसी भी संप्रत्यय, प्रक्रिया तथा तथ्यों के स्पष्टीकरण हेतू 35 मि.मि. की फिल्म के 30 से 40 फ्रेम पर हम विषय-वस्तु से सम्बन्धित सामग्रली प्रस्तुत करते हैं। विषय-वस्तु को क्रमबद्ध रूप से चित्रों, डायग्राम, फ्लो-चार्ट, नमूनों, लिखित सामग्री के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
14    ‘फिल्म-स्ट्रिप प्रोजेक्टर’-यह प्रोजेक्टर फिल्म स्ट्रिप के प्रक्षेपण में काम में लाया जाता है। इसकी रचना लगभग प्रक्षेपण लैंटर्न या मौलिक लैंटर्न से मिलती-जुलती होती हैं।
15    दूरदर्शन/टेलीविजन- सीधे और उद्देशय अनुभवों के  माध्यमों से शिक्षा देना ही शिक्षण की सर्वोत्तम विधि है, क्योंकि सीधे अनुभवों से प्राप्त ज्ञान ही वास्तविक एवं अतिंम होता है। अत: दूरदर्शन ही एक ऐसा शक्तिशाली साधन है, जिसका उपयोग शिक्षा को सुरूचिपूर्ण एवं प्रभावपूर्ण बनाने के लिए किया जा सकता है।
16   कम्प्यूटर -
    कम्प्यूटर के विकास की प्रक्रिया 1946 में प्रारंभ हुई। चाल्र्स बेवेज को कम्प्यूटर के इतिहास का अग्रगामी माना जाता है।    साधारणत: कम्पयूटर एक प्रकार की इलेक्ट्रॉनिक पद्धति है जो डेटा और इन्स्ट्रक्शन्स (अनुदेशन) को प्राप्त कर कुछ निर्देशों के अनुरूप उसकी प्रोसेसिंग कर हमें महत्वपूर्ण आउटपुट (परिणाम) देता है।
*    हमारे देश भारत में कम्पयूटर का उपयोग 1961 से प्रारम्भ किया गया है।
*    कम्पयूटर को शैक्षिक तकनीकी प्रथम या हार्डवेयर उपागम में ही सम्मिलित किया जाता है। यह स्वत: अनुदेशनात्मक पद्धति का एक उपकरण है जिसका प्रयोग व्यक्तिगत अनुदेशन के लिए किया जाता है।
*    कम्पयूटर को विद्युत मस्तिष्क भी कहते हैं।
कम्प्यूटर के विकास को 5 पीढिय़ों में बांटा गया है-
1.    प्रथम पीढ़ी (1951-58) - वैक्यूम टयूब का प्रयोग किया गया।
2.    द्वितीय पीढ़ी (1959-64) - ट्रांजिस्टर का प्रयोग किया गया।
3.    तृतीय पीढ़ी (1965-70) - इन्टिग्रेटेड सर्किट चिप्स।
4.    चौथी पीढ़ी (1970-85) - एस०एस०आई०सी० का प्रयोग।
    स्माल स्केल इंटिग्रेटेड सर्किट।
5.    पांचवी पीढ़ी (1985-लगातार) - पॉल्मटॉप, लैपटॉप।

बनावट के आधार पर -
1.    अनालाग कम्प्यूटर - वोल्ट मीटर, स्पीडो मीटर, स्टेबलाइजर।
2.    डिजीटल कम्प्यूटर - माइक्रो, मिनि, मेनफ्रेम आदि।
3.    हाइब्रिड कम्प्यूटर - उक्त दोनों क मिश्रण।
    उदा०- हॉस्पीटल में आई०सी०यू०।

कम्प्यूटर की विशेषताएं-
1.    गति - मनुष्य से अधिक।
2.    स्मृति - अत्यधिक।
3.    सत्यता - शत प्रतिशत + शुद्धता।
4.    सार्वभौमिकता -
5.    स्वचालन क्षमता -

कम्प्यूटर की भाषाएं - Basic,Logo,Cobol,C++,C#,Java,Visual Basic

कम्प्यूटर की इकाईयां -


1.    Input unit - Keyboard, Joystick, Mouse, Scanner, Light pen.
2.    Output - Monitor, Printer, Plotter, Speaker.
3.    Processing unit - Memmory unit, Control unit, Arithmetic logical unit.
    
क्रियाकलाप -
    पर्यावरण के क्षेत्र में विभिन्न आयामों की जानकारी करने, उन पर विचार-विमर्श करने और फिर उसे हर स्तर और हर आयु वर्ग तक के लोगों तक पहुँचाने हेतु आधुनिक युग में अनेक गतिविधियों का आयोजन किया जा रहा है। जैसे -
1.    प्रकृति संरक्षण कार्य - वृक्षारोपण, जलाशयों की सफाई, जंगलों की सुरक्षा आदि।
2.    सेमिनार - भूकंप, बाढ़, सूखा, ओलावृष्टि के संबंध में सेमिनार का आयोजन।
3.    चार्ट एवं मॉडल - पर्यावरण में होने वाली घटनाओं पर छात्रों द्वारा तरह-तर के चार्ट या मॉडल बनवाना।
4.    भ्रमण - भ्रमण के माध्यम से छात्रों को पर्यावरण के विभिन्न घटकों का ज्ञान करवाया जाता है।
5.    विचार गोष्ठियाँ - ये गोष्ठियाँ पर्यावरणीय समस्याओं, घटकों के मत्व या उनके प्रभाव के विचारार्थ आयोजित की जाती है।
6.    शोध प्रोजेक्ट - इसमें पर्यावरण से संबंधित शोध शामिल किए जाते है।
7.    प्रदर्शनियां - इनका आयोजन पर्यावरणीय जनजागृति कार्यक्रम के अंतर्गत किया जाता है।    
8.    व्याख्यानमाला - उच्च शिक्षा में व्याख्यानमाला जैसे क्रियाकलाप होते है।
9.    पर्यावरणीय प्रतियोगिताएं - वर्तमान समय में विभिन्न आयु वर्ग के बालक-बालिकाओं के लिए शैक्षिक स्तर पर निम्र प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जा रहा है - चित्रकला प्रतियोगिता, सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता, रंगेाली प्रतियोगिता, वाद-विवाद प्रतियोगिता, निबंध प्रतियोगिता प्रश्रोतरी प्रतियोगिता।
पृच्छा/आनुभाविक साक्ष्य
इस प्रतिमान का प्रतिपादन रिचर्ड सैकमेन ने 1962 में किया। इसके अंतर्गत शिक्षक द्वारा छात्रों से अधिकाधिक प्रश्र पूछे जाते है।
1.    इसके अंतर्गत वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया जाता है।
2.    छात्रों से अधिकाधिक प्रश्र पूछकर खेाज प्रवृति को बढावा दिया जाता है।
3.    इससे व्यवहारिक ज्ञान  प्राप्त होता है।
4.    जिज्ञासा और रूचि का विकास होता है।
5.    विद्यार्थियों में भाषा और तर्क की क्षमता बढ़ती है।
6.    विचार विमर्श की आदत का विकास होता है।
पृच्छा पद्धति की संरचना-
1.    सबसे पहले समस्या की पहचान की जाती है।
2.    समस्या सम्बंधि अनेक प्रयेाग किये जाते है। और छात्रों से विचार विमर्श किया जाता है।
3.    छात्र और शिक्षक समस्या का मिलकर समाधान करते है।
4.    सूचनाओं और तथ्यों का विश£ेषण किया जाता है।
5.    निष्कर्ष निकाले जाते है।

अध्यापन सम्बंधी समस्याएं -
1.    अक्षम बच्चों को अधिगम कराने में परेशानी अनुभव होना। (जैसे- लिखने की अक्षमता, आकृतियों बनाने में अक्षमता इत्यादि)
2.    गामक कौशल सम्बंधी समस्याएं होना। (जैसे- चलने-फिरने कठिनाई वाले बालक)
3.    भाषायी कौशल सम्बंधी समस्याएं होना (जैसे-भाषा समझने, ध्वनियां समझने में बाधा )
4.    चेतना को एक स्थान पर केन्द्रित न कर पाना।
5.    अधिगम में अभिप्रेरणा का अभाव होने के कारण शिक्षण में अरूचि की समस्या
6.    बालकों की विषय के प्रति अरूचि नकारात्मक अभिवृति होना।
7.    शिक्षक द्वारा प्रभावी शिक्षण कौशलों को न पढ़ा पाना।
8.    कक्षा में सहायक सामग्री व अनुदेशन सामग्री का अभाव होना।
9.    स्थान और समय प्रबंधन की समस्या
10.    विद्यालय में बजट व संसाधनों की कमी होना।
11.    संसाधनों की कमी की समस्या।
12.    कक्षा में विभिन्न पृष्ठभूमि के छात्रों की समस्या।
13.    शिक्षक द्वारा निजी अनुभवों का उपयोग न करना।
14.    कक्षा में अनुशासन की समस्या।
15.    उपचारात्मक शिक्षण न करवाना।
कक्षा-कक्ष की प्रक्रियाएं -
1.    कक्षा में जाने से पूर्व विषय-वस्तु का निर्माण करना।
2.    उद्देश्यों का निर्धारण करना।
3.    पूर्व ज्ञान की जांच करना।
4.    अध्यापक -छात्र अंत:क्रिया।
5.    शिक्षक द्वारा पाठ्य वस्तु पर व्याख्यान देना।
6.    प्रश्र पूछना।
7.    पुनर्बलन देना व प्रेरित करना।
8.    चुनौतीपूर्ण समस्या देना।
9.    छात्रों से समाधान करवाना।
10.    उदाहरण प्रस्तुत करना।
11.    वाद-विवाद चर्चा संगोष्ठी इत्यादि का आयोजन करवाना।
12.    श्यामपट्ट कार्य करना।
13.    मूल्यांकन करना।
14.    उचित उपचार करना।
15.    गृह कार्य देना।
आलोचनात्मक/समालोचनात्मक चिंतन का विकास -     
*    इसका उद्देश्य छात्रों में तर्क चिंतन व आलोचना शक्ति का विकास करना है।
*    इसके लिए शिक्षक निम्रलिखित कार्य करवा सकता है -
1.    सामाजिक गुणों का विकास करके।
2.    वैज्ञानिक विधियों का ज्ञान करवाकर।
3.    स्वतंत्र चिंतन शक्ति का विकास करवाकर।
4.    समायोजन क्षमता विकसित करके।
5.    उचित अभिवृत्तियों का विकास करवाकर।
6.    तर्क, चिंतन एवं वाद-विवाद करवाकर।
7.    उत्तर दायित्व के कार्य सौंपकर।
8.    अभिव्यक्ति और विचार शक्ति उत्पन्न करके।
समालोचनात्मक चिंतन उत्पन्न करने के माध्यम -
1.    चार्ट, मॉडल, दृश्य, श्रव्य, सामग्री के माध्यम से।
2.    ग्राफ व रेखा चित्रों के माध्यम से।
3.    वास्तविक वस्तुओं का ज्ञान करवाकर।
4.    भ्रमण इत्यादि के माध्यम से।
5.    अभिनय और नौटकीकरण के माध्यम से।